शख्सियत हमारी भी अजीब हैं यारों,
ना वो थकते हैं ना हम बाज़ आते हैं,
यूँहीं एक-दूसरे को आजमाते हैं,
वो रोज़ चोट पे चोट करते हैं,
हम भी रोज़ टूटते बिखरते हुए, संभल जाते हैं।
शख्सियत हमारी भी अजीब हैं यारों,
ना वो थकते हैं ना हम बाज़ आते हैं,
यूँहीं एक-दूसरे को आजमाते हैं,
वो रोज़ चोट पे चोट करते हैं,
हम भी रोज़ टूटते बिखरते हुए, संभल जाते हैं।